पता नहीं क्यों अपने यहाँ लोग विदाई के वक्त बहुत भावुक हो जाते हैं और नैनों
से नीर बहाने लग जाते हैं। माँ से रुखसत होते समय मैं भी अनायास सेंटी हो गया
था। हालाँकि, इसकी कोई जरूरत नहीं थी क्योंकि हम केवल नए घर में नई जिंदगी
बिताने के लिए जा रहे थे। इसलिए, "माँ! मि चलणु छूँ फिर।" कहते-कहते मेरे हाथ
खुद-ब-खुद उनके चरणों की ओर चले गए थे और मेरी आँखें भर आई थीं। मेरी आवाज की
भर्राहट और नजरों में उभर आए पानी को दरकिनार सा करते हुए सुधि ने अपेक्षाकृत
ठंडे स्वर में कहा -"अच्छा! माँ जी।" कपड़े-लत्तों के बँटवारे के बाद माँ को
जैसे हमारे वाक्यों को सुनकर होश आ गया हो। पर उनकी आँखों में पानी की कोई
बूँद न थी। ऐसे समय में ही जिंदगी के अनुभव आदमी के बहुत काम आते हैं।
उन्होंने बहुत ही शांत एवं संयत स्वर में जवाब देते हुए कहा - "ठीक च बिटा।
बिटा जन तुमरी मरजी आणिच वनी कारा।"
माँ के बाद जेठू मोहन दादा, स्मिता भाभी, मँझले रोहन भैया और माधुरी भाभी से
गले मिल कर हम घर की दहलीज लाँघ गए। अनमोल, आकाश, शिखा और सुदीप्त बोले तो कुछ
नहीं, पर उनकी आँखों की कातरता स्वयं यह बयान कर रही थी कि वह घर से हमारी
विदाई से खासे दुखी हो रखे थे। शिखा को इस बात का मलाल खासतौर पर था कि नई
चाची को आए हुए जुम्मा-जुम्मा चार रोज हुए हैं और वह अपने साथ उसके चाचू को भी
ले जा रही हैं। पिताजी तो पहले ही से वीतरागी हो गए थे। उन्होंने घर के झमेलों
में अपना दिमाग खर्च करना कब का छोड़ दिया था। विदाई की इस बेला में भी वह
मंद-मंद मुस्करा रहे थे जिससे उनके पोपले मुख में एक अजब सी सौम्यता आ गई थी।
टेंपो में हमारी नई गृहस्थी का सामान रखा जा चुका था। टेंपो चालक ने अपना वाहन
चालू कर दिया था। उसे न्यूट्रल पर रख कर चालक रेस पर रेस दिए जा रहा था जिससे
उसके इंजन से घर्र-घर्र का कर्णकटु स्वर निकलता जा रहा था। बड़े भैया टेंपो
चालक के साथ ही बैठ गए थे। मोहन भैया उसे रास्ता समझा रहे थे। जबकि मँझले रोहन
भैया हमारे साथ डी.एल.वाई. में आ बैठे थे।
सुधि की आँखों में सपने थे - नए घर में जाने के। एक बार उसने भी मेरी तरह अपने
बाजू की खिड़की से गर्दन निकाल कर बाहर झाँका और हाथ हिला दिया... टा... टा...।
डयोढ़ी पर खड़े घर के सदस्यों के हाथ भी अपने आप हिलने लग गए थे। हमारी गाड़ी
अपने नए गंतव्य की ओर चल पड़ी थी।
मेरी शादी को चार रोज हो चले थे। हमने अपना पुराना मकान छोड़ा न था। मगर घर के
सदस्य बढ़ते चले जा रहे थे और हमारा मकान छोटा पड़ता चला जा रहा था। घर में
नहीं, दिल में जगह होनी चाहिए की बात ठीक थी, पर छोटा घर होने की वजह से कुछ
दुश्वारियाँ उसमें अपने आप ही बढ़ती चली जा रही थीं। माँ की सोच यह थी कि घर
में साथ-साथ रह कर रिश्तों की खटास रूपी दूरी बढ़ाने के बजाए घर से दूर रह कर
संबंधों की मिठास बना कर रखना कहीं ज्यादा मुनासिब है। इसलिए, माँ-पिताजी
द्वारा तय यह किया गया था कि हमें एक नया फ्लैट खरीद कर दे दिया जाए। फिर
नई-नवेली बहू के अपने भी कुछ अरमान होते हैं। इसलिए हम अपना मकान छोड़कर नई जगह
पर डेरा जमाने जा रहे थे। बेशक हमारा नया घर छोटा था। वह सुधि और मेरे दफ्तर
से भी खासा दूर था। उसके साथ कुछ और भी दिक्कतें थीं। लेकिन हमें संतोष इस बात
का था कि यह फ्लैट हमारा अपना है। नई गृहस्थी के शुरुआती दौर में हमें
किराएदारी के टंटे में नहीं पड़ना पड़ेगा। अपने सिर के ऊपर छत हो, साथ में
नई-नवेली पत्नी हो - भला एक नवयुवक को और क्या चाहिए? उस वक्त तो वह युवक
आसमान से तारे भी तोड़ कर ला सकता है। और यदि खुदा न खास्ता, वह युवक एक कवि भी
हो तो फिर कहना ही क्या? यकीन मानिए तब जनत वहीं पर आ बसती है...।
महानगर की रेलमपेल में, वाहनों की आवाजाही से जूझते हुए हम एक-सवा घंटे में
चुंगी पर पहुँच गए। टेंपो की चुंगी चुकाने के बाद हम ढाई किलो मीटर का सफर तय
करने के बाद अपनी मंजिले-मकसूद पर पहुँच गए। घर का सामान व्यवस्थित करने में
शाम हो गई। हमारा फ्लैट चौथे माले पर था। मोहन दादा ने टेंपोचालक के पैसे चुका
दिए। अल्पाहार करने के बाद मोहन दादा और रोहन दादा रुखसत हो लिए। जाते वक्त
बड़े भैया और मँझले भैया से गले मिलते हुए एक बार फिर से मेरी आँखें भर आईं।
उनके जाने के कुछ समय बाद मैं संयत हो पाया।
घर पर अब मैं और सुधि अकेले थे।
हमारी सुहाग शाम हो चली थी। पर सुधि की दिलचस्पी सुहागशाम में न हो कर
सुहागरात में अधिक थी। शादी के तुरंत बाद नए घर में आकर गृहस्थी जमाने की
जिम्मेवारी उसके कंधों पर आ गई थी। यकायक जीवन में आए बदलाव के मुताबिक खुद को
ढालने में उसे थोड़ी दिक्कत पेश आ रही थी - मैं यह बात समझ रहा था। पर मेरी
भूख-प्यास बढ़ रही थी और सुधि संयत बनी हुई थी। हालाँकि, उसने लाल रंग की नाइटी
पहन ली थी और अपनी चोटी खोल कर वह अपने लंबे, काले और घनेरे बालों को हाथों से
सँवारने लगी थी। मैं हाथ-मुँह धो कर आ चुका था। मैंने डेनिम का आफ्टर शेविंग
लोशन चेहरे पर लगा लिया था और अपनी आँखों पर पानी के छींटे मार लिए थे जिससे
मेरी आँखें रक्तिम हो चली थीं। मैं अपनी लाल-लाल आँखों से सुधि को सहमा रहा
था। मगर मैंने बेहद अनरोमांटिक बात कहते हुए हमारे बीच पसरी हुई खोमोशी की नथ
उतारी -
"आज नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने भारत के चौदहवें प्रधानमंत्री के रूप में शपथ
ली है और हमने अपने नए मकान में शिफ्ट किया है! इस तरह हमारा गृह प्रवेश
ऐतिहासिक हो चला है। हम 26 मई, 2014 को कभी नहीं भूल पाएँगे।"
"तुम्हारे लिए मोदी का महत्व हो सकता है, मेरे लिए नहीं।"
"नहीं, मेरे कहने का यह मतलब था कि जब हम बूढ़े हो जाएँगे, तब हमारे लिए यह याद
रखना आसान होगा कि हमने कौन सी तारीख को नए घर में शिफ्ट किया था।"
"क्या तुम्हें अपनी शादी की तारीख भी याद नहीं रह पाएगी? बस उसके चार रोज बाद
ही हम नए घर में आ गए थे। इसके लिए तुम्हें मोदी की शरण में जाने की कोई जरूरत
नहीं।"
सुधि ने मेरे सामने ही मेरी अव्यावहारिकता को संतरे की मानिंद छील कर रख दिया
था। पर मैं भला हार कब मानने वाला था? मैंने उसे अपनी बौद्धिकता से आक्रांत
करने की एक और कोशिश करते हुए कहा -
"पता है अमरीका के वर्तमान राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा के प्रेरणाश्रोत कौन
थे?"
"कौन थे?"
"मार्टिन लूथर किंग! किंग ने 28 अगस्त, 1963 को वाश्गिंटन डी.सी. में आई हैव ए
ड्रीम टुडे भाषण दिया था - जो काफी ऐतिहासिक महत्व का है।"
"मुझे मोदी, ओबामा या फिर किंग और उनके सपनों से कोई लेना-देना नहीं है। मेरा
सरोकार मेरे अपने सपनों से है। मेरे सपनों की परिधि बहुत छोटी है। उसमें सिर्फ
मेरा घर आता है। मेरा पति आता है। मेरा यही सपना पूरा हो जाए, तो गनीमत है।
मैं इसी से अपना जीवन धन्य मान लूँगी।"
"जिंदा तो हर आदमी रह लेता है। इनसान वह है जो दूसरों के काम आता है। ऐसा आदमी
अमर हो जाता है। मुझे अपनी कविताओं-कहानियों में इसी अमरता की तलाश है।"
"आज के दिन भी तुम मरने-मारने की बात करने लगे। मेरी दिलचस्पी तुम्हारी अमरता
में नहीं, बल्कि तुम्हारे इतिहास में है। अमरता का संबंध भविष्य से है जिसे
किसी ने देखा-जाना नहीं। तुम्हारा इतिहास ही यह तय करेगा कि तुम्हारा वर्तमान
कैसा सँवर कर आता है।"
सुधि ने दो टूक शब्दों में मेरे सामने खरी-खरी बात कह दी थी। इससे मैं जमीन पर
आ गया था। फिर भी मैं अभी अपनी जमीन छोड़ने के लिए तैयार नहीं हो रहा था। इसलिए
मैंने सेंटर टेबल पर पड़ी हुई अपनी डायरी को बड़ी नाटकीयता से उठाया और उसे
दिखाते हुए सुधि से बोला -
"मेरा इतिहास मेरी डायरियों में बंद है! और तुम्हारा?"
"मेरा इतिहास मेरे जिस्म में बंद है! तुम वाकई शब्दों के मँझे हुए खिलाड़ी हो।
तुम कितनी खूबसूरती से अपना इतिहास बताने से मुकर गए!"
"प्यार के मामले में मैं मीडियॉकर हूँ!"
"मुझे मालूम है कि तुम कितने मीडियॉकर हो!"
"सच! झूठ नहीं बोल रहा हूँ।"
"तुम्हारे जैसे मीडियॉकरों को जीनियस बनाने के लिए सिर्फ औरत की देह दिखा देनी
चाहिए - फिर देखो उनकी काव्य प्रतिभा कैसे फूट पड़ती है!"
"तुम्हारा ऑब्जरवेशन काबिलेतारीफ है!"
फिर मैं सेंटर टेबल पर पड़ी पानी की बोतल को उठा कर उसका पानी पीने लगा
...गट-गट-गट। वापस बिस्तर पर लेटते हुए मैंने सुधि को अपनी बाँहों के घेरे में
ले लिया। मैं यह मान कर चल रहा था कि नई नवेली पत्नी को अपने पति की हर बात
पसंद तो आती ही है -
"मैंने कहा न कि मेरी दिलचस्पी सिर्फ तुम्हारे इतिहास में है।"
सुधि से इस तरह की प्रतिक्रिया मिलने की उम्मीद मैंने सपने में भी न की थी।
मैं थोड़ा सा झेंपते हुए बोला -
"मैंने कोई डरावनी बात तो नहीं कही है! सिर्फ तुम्हारी इज्जत अफजाई की है"
"यह सच है कि तुमने कोई भयावह बात नहीं कही है! पर मुझे अब तुमसे डर लगने लगा
है।"
"तुम मुझसे क्यों डरने लगी हो?"
"चूँकि तुममें सच्चाई का अंश है!"
"सच सुन कर तुम डर रही हो!"
"नहीं, सच गुन कर मैं डर रही हूँ!"
"क्या सच गुन लिया?"
"यही कि तुम्हारे इस ओबामा युगीन मंदी के दौर में एक भावुक आदमी से ब्याह कर
क्या मैंने अपने जीवन का सही कदम उठाया है?"
"तो तुम मेरी भावुकता से डर रही हो!"
"बिल्कुल। तुम अपने शब्दों के जरिए अपने आँसुओं की भी कलात्मक अभिव्यक्ति कर
सकते हो। पर मेरी तुमसे बस यही एक इल्तजा है कि मेरे जीवन पर तुम कभी ऐसी कोई
करुणगाथा न लिखना।"
मैं सुधि की विश्लेषण क्षमता का कायल हो चुका था। वह मेरी तरह ज्यादा पढ़ी-लिखी
न थी। पर उसमें नारीसुलभ आलोचना शक्ति सहजात थी। उसने अपने नीर-क्षीर विवेक से
मेरे व्यक्तित्व का मूल्यांकन कर लिया था। कहाँ तो मैं उसे अपने ज्ञान से
आक्रांत कर देना चाहता था और कहाँ अब मैं स्वयं उसकी मेधाशक्ति से प्रभावित हो
चुका था। सुधि ने मुझे उघाड़ कर रख दिया था। हमारे बीच अब शांति पसर चुकी थी।
मौन स्वीकृति का लक्षण होता ही है, अब मेरे सामने जिज्ञासा का एक और क्षेत्र
था।
मैंने जीरो वॉट का बल्ब बुझा दिया। इस तरह हमारे जीवन का एक नया अध्याय
जगा...।
अगले दिन, सुबह पाँच बजे का अलार्म बजने पर मैं भी सुधि के साथ उठ गया। कभी हम
मुर्गे के बाँग देने पर उठा करते थे। अब उसकी जगह मोबाइल फोन ने ले ली थी।
आपको मुर्गे की बाँग सुननी है, तो मोबाइल पर उसकी बोली का अलार्म ऑन कर दो -
कुकड़ू-कूँsssकुकड़ू-कूँsss...। नींद खुल जाने पर उसका स्नूज ऑफ कर दो। मगर सुधि
ने अपने मोबाइल के स्क्रीन सेवर पर घड़ी लगाई हुई थी। इसमें पाँच बजने पर
अलार्म बोलने लगता था, "इट इज टाइम टू गेट अप सर। द टाइम इज फाइव ए.एम.।"
अलार्म में एक महिला की आवाज फीड की गई थी। वह बोलती सर थी और उठती हमारी मैडम
थी। मोबाइल के स्वर को तो मैं बदल नहीं सकता था। पर मैं अपनी आदत सुधारने की
कोशिश कर जरूर सकता था। इसलिए, मैं तब जग गया था।
सुबह बिस्तर से उठने के बाद सुधि ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी हो कर अपने बाल
सँवारती हुई बेहद मादक लग रही थी। हम बालकनी में आ गए। हमने सुरक्षा की खातिर
बालकनी को शीशे से ढकवा कर खिड़की बनवा ली थी। मैंने सुन रखा था कि यहाँ पर
बंदर घर के अंदर घुस आते हैं। बंदरों से तो हमारी सुरक्षा सुनिश्चित हो गई थी।
पर दूधिए ने अपनी जो भैंसे पाली हुई थीं, उनके गोबर की सड़ांध से बच पाना हमारे
लिए मुमकिन नहीं हो पा रहा था। सुबह के झुटपुटे में सफेदे का लहराता हुआ पेड़
हमें डायनोसर की तरह दिखाई पड़ता था। तभी उसकी शाख पर बैठे हुए मोर ने कूजना
शुरू कर दिया - क्वैंsssक्वैंssss। सुबह के इस दिव्य अनुभव ने मेरी काव्य
चेतना प्रखर कर दी। इसे महसूसने के लिए मैं विकल हो उठा। इसलिए सुधि से मैं
बोला -
"किसी शहर के चरित्र का पता उसकी सुबह से चलता है..!"
"मतलब!"
"रात के चोर, सुबह के शरीफजादे बन जाते हैं! मगर अपने पीछे वे कुछ सुराग छोड़
जाते हैं!"
"कैसे?"
"यही कंडोम, शराब की खाली बोतलें... इधर-उधर बिखरे हुए सैनीटरी पैड...!"
"तुम दूसरों को चोर कहते हो, पर क्या खुद किसी से कम हो...!"
"मैंने भला क्या चोरी की है!"
"रात में तुम भी तो जगते हो। फिर, चोर का साथी गिरहकट होता ही है। दोनों
एक-दूसरे के कामों की बारीकियाँ जो अच्छे से जानते-बूझते हैं ...इसलिए शक तो
मुझे तुम पर भी होता है!"
"अरे भई यह तो मेरी प्रतिभा का कमाल है!"
"अगर तुम सच में इतने प्रतिभाशाली हो, तो तुमने अभी तक मुझे इस कालोनी का
भूगोल क्यों नहीं बताया!"
"मैं अभी तुम्हारा जुगराफिया जानने में लगा हुआ हूँ, भला मुझे इतनी फुर्सत
कहाँ कि मैं कालोनी की तरफ नजर उठा कर भी देखूँ!"
मेरी बात सुन कर सुधि के गालों पर लाली छा गई थी। लेकिन बात वह सही ही कह रही
थी कि कल को उसे दफ्तर, बाजार या अन्यत्र जाना होगा, तो कम से कम उसे इलाके की
जानकारी तो होनी ही चाहिए। थोड़ा उजाला भी हो चला था। हम सैर करने के लिए घर से
निकल पड़े।
आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग (ई.डब्ल्यू.एस.) की हमारी कालोनी गंदे नाले के सामने
स्थित थी। नाले पर पुलिया बनी हुई थी। यहाँ पर सात रिहाइशी इमारतें थीं।
सातवीं और अंतिम इमारत हमारी थी। इसके चौथे माले में हम रहते थे। भवन की हर
मंजिल में आमने-सामने छह-छह यानि की कुल बारह फ्लैट थे। इस तरह प्रत्येक भवन
में अड़तालीस जनता फ्लैट थे। हमारी इमारत की छत भी जर्जर हालत में थी। इमारत की
छत पर जब बच्चे लंगड़ी टाँग खेला करते थे या फिर भागदौड़ किया करते थे, तब उनकी
पदचाप से धप्प-धप्प की ध्वनि फ्लैट में होती रहती थी। गर्मियों में छत तप भी
बहुत जाया करती थी। बरसात में छत टपकने लगती थी जिससे घर में सीलन आ जाया करती
थी। छत की मुंडेर चार फुट की थी। छत पर जगह-जगह पर सिनटेक्स की टंकियाँ रखी
हुई थीं। छत पर बरसों से सफेदी नहीं हुई थी। उसका प्लास्टर पूरी तरह से उखड़
चुका था। उसका दरवाजा टूटा हुआ था। इमारत की दीवार पर काई भी जमी हुई थी। अपने
माले की चवालीस सीढ़ियाँ उतर कर हम भूतल पर आ गए थे। भूमि तल पर लोगों ने
छोटी-मोटी दुकानें खोल रखी थीं। उधर प्रापर्टी डीलरों की दुकानें काफी तादाद
में थीं। इसका मतलब यह था कि हमारा इलाका विकास की दहलीज पर खड़ा हुआ था। यहाँ
पर कभी भी बूम आ सकता था। उधर आटे की एक चक्की भी थी। इसे देख कर सुधि को काफी
संतोष हुआ। नाले की पुलिया के सामने हलवाई, नाई, ब्यूटी पार्लर, किराने और
दवाइयों की दुकाने थीं। हलवाई की दुकान से हमने एक लीटर पॉलीपैक दूध ले कर
अपनी पॉलीथीन की थैली में डाल दिया। पुलिया से चुंगी तक रिक्शे और विक्रम में
जाया जा सकता था। मुख्य सड़क पर से रोडवेज और चार्टरित बसें मिल जाया करती थीं।
सुधि को नाले के सामने के रहवासियों की स्थिति पर दया आ रही थी। उन पर अपनी
दयावर्षा करते हुए उसने मुझसे पूछा - "क्या इन्हें बदबू नहीं आती होगी?"
पुलिया पर से गुजरते हुए सामने से एक महिला के पॉलीथीन की थैली को पुल पर रखते
हुए और निर्माणाधीन दीवार पर चढ़ कर पुलिया के ऊपर आने की चेष्टा करते देख कर
उसने यह बात कही थी। उस महिला के पाँवों में महावर लगी हुई थी। उसने पाँवों
में पाजेब पहनी हुई थी और अँगुलियों में बिछिया डाली हुई थी। उसके हाथों में
हरी-रही चूड़ियाँ खनक रही थीं। कानों में उसने झुमकी भी पहनी हुई थी। शायद उसकी
हाल में शादी हुई थी। मगर सुधि की पैनी नजरों से यह रहस्य छिप गया था या फिर
उसने जान-बूझ कर उसको नजरअंदाज करना मुनासिब समझा था। सुधि की इस अनदेखी पर
मुझे अचरज अवश्य हुआ क्योंकि हम भी इसी कालोनी की आखिरी इमारत में रह रहे थे?
किंतु, सुधि इस तथ्य को बिसर कर स्वयं को सामनेवालों से अलहदा मान रही थी।
जबकि हममें और उनमें कोई फर्क न था। मगर मैंने उसकी दयादृष्टि पर अपनी
कोपदृष्टि बरसाना जरूरी नहीं समझा। इसलिए, मैंने उसकी प्रतिक्रिया में सिर्फ
इतना कहा - "दरअसल, मैं इस विषय की गहराई में जाना नहीं चाहता। वैसे तुम अपना
शौक पूरा करने के लिए स्वतंत्र हो।" प्रतिक्रिया तीखी और सटीक थी। सुधि
मुस्कराए बिना न रह सकी।
आधे घंटे तक कालोनी का जुगराफिया मापने के बाद हम लौट आए थे। थोड़ी देर में
सुधि चाय बना कर ले आई थी। फिर उसे पॉलीथीन की थैली का प्रसंग याद आ गया। अतः,
वह भावुक होते हुए बोली - "यार! इन लोगों की जिंदगी भी क्या जिंदगी है?"
"क्या तुम इसे जिंदगी कह सकती हो। कीड़े-मकोड़े नहीं हैं ये लोग। क्या यह आदमी
कहलाने लायक हैं?" मैंने घृणित स्वर में कहा।
"तुम्हें इनके आदमी होने पर आपत्ति है या इनके जीवन पर?" सुधि ने कर्कश स्वर
में मेरी तथाकथित बौद्धिकता को झकझोरते हुए पूछ डाला था। उसी तल्खी से मैंने
जवाब दिया - "शायद दोनों पर।" हमारी बौद्धिक चर्चा से जुगुप्सा का रस उभर आया
था। अक्सर बुद्धिजीवी ऐसी बातें होने पर नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं। मैं भी
इसका अपवाद नहीं था। चाय पीने के बाद मैं खाली पड़े हुए प्यालों को रखने के लिए
किचन में चला गया। किचन में मेरी निगाह पॉलीथीन की थैली पर पड़ गई। सुधि ने
पॉलीथीन की थैली में से पॉलीपैक दूध के सिरे को कैंची से काट कर दूध सिल्वर के
पतीले में उडेल दिया था। फिर उसने पतीले में दूध उबाला था और उस दूध की चाय
बनाई थी। इसलिए पॉलीथीन की थैली में अब दूध नहीं था। वह खाली हो चुकी थी। उस
खाली थैली को देख कर मेरा मन अजीब सा हो गया...। मुझे महसूस हुआ कि पॉलीथीन की
थैली में पानी भरे होने और दूध के पैकेटों के रखे होने में कितना बड़ा फर्क
होता है...।